राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।9.2।।वह ज्ञान --, अतिशय प्रकाशयुक्त होनेके कारण समस्त विद्याओंका राजा है। ब्रह्मविद्या सब विद्याओंमें अतिशय देदीप्यमान है यह प्रसिद्ध ही है। तथा ( यह ज्ञान ) समस्त गुप्त रखनेयोग्य भावोंका भी राजा है। एवं यह बड़ा पवित्र और उत्तम भी है? अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र करनेवालोंको पवित्र करनेवाला यह ब्रह्मज्ञान सबसे उत्कृष्ट है। जो अनेक सहस्र जन्मोंमें इकट्ठे हुए पुण्य पापादि कर्मोंको क्षणमात्रमें मूलसहित भस्म कर देता है उसकी पवित्रताका क्या कहना है साथ ही यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाला है? अर्थात् सुख आदिकी भाँति जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सके? ऐसा है। अनेक गुणोंसे युक्त वस्तुका भी धर्मसे विरोध देखा जाता है? परंतु आत्मज्ञान उनकी तरह धर्मविरोधी नहीं है बल्कि धर्म्य -- धर्ममय है अर्थात् धर्मसे युक्त है। ऐसा पदार्थ भी दुःसम्पाद्य ( प्राप्त करनेमें बड़ा कठिन ) हो सकता है। इसलिये कहते हैं कि वह ज्ञान रत्नोंके विवेकविज्ञानकी भाँति समझनेमें बड़ा सुगम है। परंतु संसारमें अल्प परिश्रमसे सुखपूर्वक सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका अल्प फल और कठिनतासे सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका महान् फल देखा गया है? अतः यह ज्ञान भी सुगमतासे सम्पन्न होनेवाला होनेके कारण अपने फलका क्षय होनेपर क्षीण हो जायगा? ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं -- यह ज्ञान अव्यय है अर्थात् कर्मोंकी भाँति फलनाशके द्वारा इसका नाश नहीं होता। अतः यह आत्मज्ञान श्रद्धा करने योग्य है।