श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।।

 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।16.3।। हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।16.3।। --,तेजः प्रागल्भ्यं न त्वग्गता दीप्तिः। क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा अन्तर्विक्रियानुत्पत्तिः? उत्पन्नायां विक्रियायाम् उपशमन् अक्रोधः इति अवोचाम। इत्थं क्षमायाः अक्रोधस्य च विशेषः। धृतिः देहेन्द्रियेषु अवसादं प्राप्तेषु तस्य प्रतिषेधकः अन्तःकरणवृत्तिविशेषः? येन उत्तम्भितानि करणानि देहश्च न अवसीदन्ति। शौचं द्विविधं मृज्जलकृतं बाह्यम् आभ्यन्तरं च मनोबुद्ध्योः नैर्मल्यं मायारागादिकालुष्याभावः एवं द्विविधं शौचम्। अद्रोहः परजिघांसाभावः अहिंसनम्। नातिमानिता अत्यर्थं मानः अतिमानः? सः यस्य विद्यते सः अतिमानी? तद्भावः अतिमानिता? तदभावः नातिमानिता आत्मनः पूज्यतातिशयभावनाभाव इत्यर्थः। भवन्ति अभयादीनि एतदन्तानि संपदं अभिजातस्य। किं विशिष्टां संपदम् दैवीं देवानां या संपत् ताम् अभिलक्ष्य जातस्य देवविभूत्यर्हस्य भाविकल्याणस्य इत्यर्थः? हे भारत।।अथ इदानीं आसुरी संपत् उच्यते --,

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.3।। तेज यह केवल मुखमण्डल की ही आभा नहीं है? जो पौष्टिक आहार और पर्याप्त विश्राम से प्राप्त होती है। तेज शब्द से ज्ञानी पुरुष के मात्र शारीरिक सौन्दर्य या तेज से ही अभिप्राय नहीं है। अध्यात्म की आभा कोई ऐसा प्रभामण्डल नहीं है? जो ज्ञानी के मुख के चारों ओर अग्निवृत के समान जगमगाता हो। तत्त्वदर्शी ऋषि का तेज है? उसकी बुद्धि की प्रतिभा? नेत्रों में जगमगाता आनन्द? सन्तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करने वाली शान्ति की सुरभि? कर्मों में उसका अविचलित सन्तुलन? प्राणिमात्र के प्रति उसके हृदय में स्थित प्रेम का आनन्द और उसके अन्तरतम से प्रकाशित आनन्द का प्रकाश। यह तेज ही उस ऋषि के व्यक्तित्व का प्रबल आकर्षण होता है? जो प्रचुर शक्ति और उत्साह के साथ सब की सेवा करता है और उसी में स्वयं को धन्य समझता है।क्षमा जिस सन्दर्भ में इस गुण का उल्लेख किया गया है? उससे इसका अर्थ गाम्भीर्य बढ़ जाता है। सामान्य दुख और कष्ट? अपमान और पीड़ा को धैर्यपूर्वक सहन करनै की क्षमता ही क्षमा का सम्पूर्ण अर्थ नहीं है। बाह्य जगत् के अत्यधिक शक्तिशाली विरोध तथा उत्तेजित करने वाली परिस्थितयों के होने पर भी उनका सामना करने का सूक्ष्म कोटि का साहस और अविचलित शान्ति का नाम क्षमा है।धृति जब कोई व्यक्ति साहसपूर्वक जीना चाहता है? तब वह अपने जीवन में सदैव सुखद वातावरण? अनुकूल परिस्थितयाँ और अपने कार्य में सफलता के सहायक सुअवसरों को प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं कर सकता है। सामान्यत? एक दुर्बल व्यक्तित्व के पुरुष को अचानक निराशा आकर घेर लेती है और वह कार्य को अपूर्ण ही छोड़कर अपने कार्य क्षेत्र से निवृत्त हो जाता है। अनेक लोग तो ऐसे समय हतोत्साह होकर कार्य को त्याग देते हैं? जब विजयश्री उन्हें वरमाला पहनाने को तत्पर हो रही होती है निश्चल भाव से कार्यरत रहने के लिए मनुष्य को एक अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता होती है? जिसके द्वारा वह अपनी क्लान्त और श्रान्त आस्था काे पोषित कर दृढ़ बना सकता है। पुन एक युक्त पुरुष में निहित वह गुप्त शक्ति है धृति अर्थात् धैर्य। श्रद्धा की शक्ति? लक्ष्य में आस्था? उद्देश्य की एकरूपता? आदर्श का स्पष्ट दर्शन और त्याग की साहसिक भावना ये सब वे शक्ति श्रोत हैं? जहाँ से धृति की बूंदें रिसती हुई प्रवाहित होकर श्रम? अवसाद एवं निराशा आदि का परिहार करती हैं।शौचम् (शुद्धि) यह शब्द न केवल अन्तकरण के विचारों एवं उद्देश्यों की शुद्धि को इंगित करता है? वरन् इसके द्वारा वातावरण की शुद्धि? अपने वस्त्रों की और वस्तुओं की स्वच्छता भी सूचित की गयी है। आन्तरिक शुद्धि पर ही अत्यधिक बल देने के फलस्वरूप हम अपने समाज में बाह्य शुद्धि की सर्वथा उपेक्षा की जाते हुए देखते हैं। वस्त्रों की तथा नगर की स्वच्छता हमारे राष्ट्र में दुर्लभ हो गयी है। यद्यपि हमारे धर्म में साधक के लिए शुद्धि और स्वच्छता इन दोनों को ही अपरिहार्य बताया गया है? तथापि धर्णप्राण भक्तगण भी इनके प्रति उदासीन ही दिखाई देते हैं।अद्रोह अहिंसा का अर्थ है? किसी को भी पीड़ा न पहुँचाना और अद्रोह का अर्थ है मन में कभी हिंसा का भाव न उठना। जैसे? कोई भी व्यक्ति कभी स्वप्न में भी स्वयं को पीड़ित करने का विचार नहीं करता? वैसे ही आत्मैकत्व का बोध प्राप्त पुरुष के मन में किसी के प्रति भी द्रोह की भावना नहीं आती? क्योंकि अन्य को कष्ट देने का अर्थ स्वयं को ही पीड़ित करना है।न अतिमानिता इसका अर्थ है स्वयं की पूजनीयता के विषय में अतिशयोक्ति पूर्ण विचार न रखना। अतिमान के नहीं होने पर मनुष्य स्वयं को तत्काल ही सहस्रों अपरिहार्य उत्तेजनाओं से तथा अनावश्यक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर सकता है। गर्वमुक्त पुरुष के लिए जीवन पक्षी के पंख के समान भारहीन होता है? जबकि एक अतिमानी पुरुष के लिए अपना जीवन प्राणदण्ड की शूली के समान बन जाता है? जिसे अत्यन्त कष्टपूर्वक वहन करते हुए उसे चलना पड़ता है? जब कि वह शूली उसके कंधों के मांस को निर्दयतापूर्वक छील रही होती है।उपर्युक्त छब्बीस गुण दैवीसम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति के स्वभाव का पूर्ण चित्रण करते हैं। पूर्णत्व प्राप्ति के सभी इच्छुक साधकों के मार्गदर्शन के रूप में इन गुणों का यहाँ उल्लेख किया गया है। जिस मात्रा में? उपर्युक्त दैवीगुणों के अनुरूप हम अपने जीवन को पुर्नव्यवस्थित करने में सक्षम होते हैं और जीवन की ओर देखने के अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकते हैं? उसी मात्रा में हम अपनी शक्तियों के निष्प्रयोजक व्यय को अवरुद्ध कर उन्हें सुरक्षित रख सकते हैं। इन जीवन मूल्यों का सम्मान करते हुए उन्हें जीने का अर्थ ही सम्यक् जीवन पद्धति को अपनाना है।अब? आसुरी सम्पदा का वर्णन करते हैं

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।16.1 -- 16.5।।एतद्बुद्ध्वा इत्युक्तम्। बोधश्च नाम श्रुतिमयज्ञानान्तरम् (S श्रुत -- ) इदमित्थम् इत्येवंभूतयुक्तिचिन्ताभावनामयज्ञानोदेयेन (S??N चिन्तामयज्ञानोदयेन) विचारविमर्शपरमर्शादिरूपेण विजातीयन्यक्कारविरहिततद्भावनामयस्वभ्यस्ताकारविज्ञानलाभे सति भवति। यद्वक्ष्यते (S तद्वक्ष्यते N तद्वक्ष्यति) -- विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसी तथा कुरु (XVIII? 63) इति। तत्र श्रुतिमये ज्ञाने गुरुशास्त्रे एव प्राधान्येन प्रभवतः युक्तिचिन्ताभावनामये तु विमर्शक्षमता असाधारणा शिष्यगुणसंपत् ( -- रणशिष्य -- ) प्रधानभूता। अतः अर्जुनस्यास्त्येवासौ इत्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणं विमृश्यैतत् इति वाक्यं सविषयं कर्तुं परिकरबन्धयोजनाभिप्रायेण आह भगवान् गुरुः अभयम् इत्यादि।आसुरभागसन्नविष्टा तामसी किल अविद्या। सा प्रवृद्धया दिव्यांशग्राहित्या विद्यया बाध्यते ( प्रवृद्धाया -- विद्याया बध्यते) इति वस्तुस्वभाव एषः। त्वं च विद्यात्मानं दिव्यमंशं सात्त्विकमभिप्रपन्नः तस्मादान्तरीं मोहलक्षणामविद्यां विहाय बाह्याविद्यात्मशत्रुहननलक्षणं (S बाह्यविद्या) शास्त्रीयव्यापारम् अनुतिष्ठ इत्यध्यायारम्भः।तथाहि -- अभयमित्यादि पाण्डवेत्यन्तम्। दिव्यांशस्य इमानि चिह्नानि तानि स्फुटमेवाभिलक्ष्यन्ते (S? स्फुटमेवोपलक्ष्यन्ते)। दमः (S omits दमः) इन्द्रियजयः। चापलं पूर्वापरमविमृश्य यत् करणम्? तदभावः अचापलम्। तेजः आत्मनि उत्साहग्रहणेन मितत्वापाकरणम्। दैवी संपदेषा। सा च तव विमोक्षाय? कामनापरिहारात्। अतस्त्वं शोकं मा प्रापः -- यथा भ्रात्रादीन् हत्वा सुखं कथमश्नुवीय इति। शिष्टं स्पष्टम्।

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

6.3 See Coment under 16.5

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

16.3 Tajah, vigour, not the brightness of the skin; ksama, forgiveness, absence of internal perturbation when offened or assulated-absence of anger has been explained by us as the calming down of a perturbed mind; thus, forgiveness and absence of anger are distinguished; dhrtih, fortitude, a particular function of the mind which removes the tedium of the body and organs when they become exhausted, and being rejuvenated by which the body and organs do not feel any fatigue; saucam, purity-is of two kinds: external, with the help of earth and water; and internal, the cleanliness of mind and intellect, the absence of such impurities as trickery, attachment, etc.; purity of these two kinds; adrohah, freedom from malice, absence of the desire to injure others, absence of hatred; na-atimanita, absence of haughtiness-too much self-esteem (mana) is atimanah; one having that is atimani; its abstract form is atimanita; absence of that, na-atimanita, i.e., absence of the feeling of one's being too honourable. These (alities) beginning with fearlessness and ending with this, O scion of the Bharata dynasty, bhavanti, are; (the alities) abhijatasya, of one destined to have;-what kind of nature?-the daivim, divine; sampadam, nature-of one destined to have divine attributes, of one who is worthy of the excellence of the gods, i.e., of one who would be illustrations in future. Thereafter, the demoniacal nature is now being stated:

English Translation By Swami Gambirananda

16.3 Vigour, forgiveness, fortitude, purity, freedom from malice, absence of haughtiness-these, O scion of the Bharata dynasty, are (the alties) of one born destined to have the divine nature.