अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।17.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?
।।17.1।। --,ये केचित् अविशेषिताः शास्त्रविधिं शास्त्रविधानं श्रुतिस्मृतिशास्त्रचोदनाम् उत्सृज्य परित्यज्य यजन्ते देवादीन् पूजयन्ति श्रद्धया अन्विताः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः संयुक्ताः सन्तः -- श्रुतिलक्षणं स्मृतिलक्षणं वा कञ्चित् शास्त्रविधिम् अपश्यन्तः वृद्धव्यवहारदर्शनादेव श्रद्दधानतया ये देवादीन् पूजयन्ति? ते इह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः इत्येवं गृह्यन्ते। ये पुनः कञ्चित् शास्त्रविधिं उपलभमाना एव तम् उत्सृज्य अयथाविधि देवादीन् पूजयन्ति? ते इह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते इति न परिगृह्यन्ते। कस्मात् श्रद्धया अन्वितत्वविशेषणात्। देवादिपूजाविधिपरं किञ्चित् शास्त्रं पश्यन्त एव तत् उत्सृज्य अश्रद्दधानतया तद्विहितायां देवादिपूजायां श्रद्धया अन्विताः प्रवर्तन्ते इति न शक्यं कल्पयितुं यस्मात्? तस्मात् पूर्वोक्ता एव ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः इत्यत्र गृह्यन्ते। तेषाम् एवंभूतानां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः? किं सत्त्वं निष्ठा अवस्थानम्? आहोस्वित् रजः? अथवा तमः इति। एतत् उक्तं भवति -- या तेषां देवादिविषया पूजा? सा किं सात्त्विकी? आहोस्वित् राजसी? उत तामसी इति।।सामान्यविषयः अयं प्रश्नः न अप्रविभज्य प्रतिवचनम् अर्हतीति श्रीभगवानुवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
।।17.1।। पूर्वाध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने शास्त्रों के प्रामाण्य एवं अध्ययन पर विशेष बल दिया था। उसी बिन्दु से विचार को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन यहाँ प्रश्न पूछ रहा है। वह चाहता है कि भगवान् श्रीकृष्ण विस्तृतरूप से इसका विवेचन करें कि किस प्रकार हम प्रभावशाली और लाभदायक आध्यात्मिक जीवन को अपना सकते हैं। इसके साथ ही अध्यात्मविषयक भ्रान्त धारणाओं का भी वे निराकरण करें।शास्त्रविधि को त्यागकर प्राय धर्मशास्त्रों से अनभिज्ञ होने के कारण सामान्य जनों को शास्त्रीय विधिविधान उपलब्ध नहीं होते हैं। यदि शास्त्रों को उपलब्ध कराया भी जाये? तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं? जिनमें तत्प्रतिपादित ज्ञान को समझने की बौद्धित क्षमता होती है। सांसारिक जीवन में कर्मों की उत्तेजनाओं तथा मानसिक चिन्ताओं और व्याकुलता के कारण शास्त्रनिर्दिष्ट मार्ग के अनुसार अपना जीवन सुनियोजित करने की पात्रता हम में नहीं होती। परन्तु? इन सबका अभाव होते हुए भी एक लगनशील साधक को श्रेष्ठतर जीवन पद्धति तथा धर्म के आदर्श में दृढ़ श्रद्धा और भक्ति हो सकती है। इसलिए अर्जुन के प्रश्न का औचित्य सिद्ध होता है।यहाँ प्रयुक्त यज्ञ शब्द से वैदिक पद्धति के होमहवन आदि ही समझना आवश्यक नहीं हैं। गीता सम्पूर्ण शास्त्र है और उसमें उन शब्दों की अपनी परिभाषाएं भी दी गयी है। यज्ञ शब्द की परिभाषा में वे समस्त कर्म समाविष्ट हैं? जिन्हें समाज के लोग अपनी लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए निस्वार्थ भाव से करते हैं। अर्जुन की जिज्ञासा यह है कि जगत् के पारमार्थिक अधिष्ठान को जाने बिना भी यदि मनुष्य यज्ञभावना से कर्म करता है? तो क्या वह परम शान्ति को प्राप्त कर सकता है उसकी स्थिति क्या कही जायेगी अपने प्रश्न को और अधिक स्पष्ट करते हुए वह पूछता है कि ऐसे श्रद्धावान् साधक की निष्ठा कौनसी श्रेणी में आयेगी सात्त्विक ?राजसिक या त्ाामसिक
।।17.1।।ये शास्त्रेति। शास्त्रविधिमनालंब्य ये व्यवहारमाचरन्ति [ श्रद्धया ]? तेषां का गतिरिति प्रश्नः।