यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।5.28।। जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।।
।।5.27 5.28।। स्पर्शान् शब्दादीन् कृत्वा बहिः बाह्यान् श्रोत्रादिद्वारेण अन्तः बुद्धौ प्रवेशिताः शब्दादयः विषयाः तान् अचिन्तयतः शब्दादयो बाह्या बहिरेव कृताः भवन्ति तान् एवं बहिः कृत्वा चक्षुश्चैव अन्तरे भ्रुवोः कृत्वा इति अनुषज्यते। तथा प्राणापानौ नासाभ्यन्तरचारिणौ समौ कृत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः यतानि संयतानि इन्द्रियाणि मनः बुद्धिश्च यस्य सः यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मननात् मुनिः संन्यासी मोक्षपरायणः एवं देहसंस्थानात् मोक्षपरायणः मोक्ष एव परम् अयनं परा गतिः यस्य सः अयं मोक्षपरायणो मुनिः भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोधः इच्छा च भयं च क्रोधश्च इच्छाभयक्रोधाः ते विगताः यस्मात् सः विगतेच्छाभयक्रोधः यः एवं वर्तते सदा संन्यासी मुक्त एव सः न तस्य मोक्षायान्यः कर्तव्योऽस्ति।।एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये
पञ्चमोऽध्यायः।।
।।5.28।। सूत्रस्थानीय इन श्लोकों में भगवान् ने ध्यानयोग का संक्षेप में संकेत किया है जिसका विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। संस्कृत में ब्रह्मविद्या के ग्रन्थों की यह पारम्परिक शैली है कि प्राय उनमें एक अध्याय के अन्तिम श्लोकों में आगामी अध्याय के विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है।इन श्लोकों में ज्ञानी पुरुष के अर्थपूर्ण जीवन के सभी पक्षों का वर्णन मिलता है। वेदान्त के साधक पूर्णत्व का जीवन जीने के लिए सदैव उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। वे उन स्वप्नद्रष्टा पुरुषों के समान नहीं होते जो किसी आदर्शवादी कल्पना में रमना पसन्द करते हैं बल्कि वे तो अत्यन्त व्यवहारकुशल उपयोगी और प्रेरणा का जीवन जीना चाहते हैं। इसलिए उन्हें अव्यावहारिक एवं आदर्शवादी तत्त्वज्ञान का कोई आकर्षण नहीं होता।पूर्णरूप से मन का समत्व कैसे प्राप्त किया जाय यह शंका सभी साधकों के मन में उठती है। श्रीकृष्ण यहाँ संक्षेप में उस साधन क्रम का वर्णन करते हैं जिसके अभ्यास से सिद्ध पुरुष के सुसंगठित व्यक्तित्व को प्राप्त किया जा सकता है। इसी का विस्तार अगले अध्याय में है।बाह्य विषयों की स्वयं में यह सार्मथ्य नहीं है कि वे किसी व्यक्ति को क्षुब्ध या लुब्ध कर सकें। विक्षेप का होना तो उनके साथ हमारे सम्बन्ध पर निर्भर करता है। समुद्रतट पर खड़े होकर उसमें उत्ताल तरंगों को देखने मात्र से कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती किन्तु समुद्र में कूद पड़ने पर तरंगों के द्वारा हमें इधरउधर फेंका जाना प्रारंभ होता है। शब्दस्पर्श रूप आदि ग्रहण करने पर विक्षेप तभी होता है जब हम अपने मन की परिवर्तनशील परिस्थितियों से तादात्म्य करते हैं। इसलिए यदि हम बाह्य विषयों को बाहर ही रख सकें तो निश्चय ही ध्यानाभ्यास के लिए आवश्यक मनशान्ति प्राप्त की जा सकती है। यहाँ विषयों को बाहर रखने का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी इंद्रियों का उपयोग करना बंद कर दें। इसका तात्पर्य यह है कि हम विषयों का चिन्तन न करें। विचार द्वारा यह जानकर कि उनमें सुख नहीं होता उनसे विरक्त हो जायें।अनेक साधक गुरु के उपदेशों का शाब्दिक अर्थ लेकर विचित्र ध्यानाभ्यास करने लगते हैं। ध्यान के लिए वे नेत्रदृष्टि को भृकुटियों के मध्य स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं। यह तो उपदेश का अतिप्रसंग ही कहा जायेगा। जैसा कि श्री शंकराचार्य बताते हैं यहाँ दृष्टि को मानो भृकुटियों के बीच स्थिर करना है वास्तव में नहीं। यह एक मनोवौज्ञानिक सत्य है कि भृकुटियों के बीच दृष्टि को स्थिर करने की कल्पना से 45 अंश का कोण बनता है और यह स्थिति ध्यान के लिए अत्यन्त अनुकूल होती है।हमारे श्वासोच्छ्वास की गति एवं मन की स्थिति के बीच अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है। मन के क्षुब्ध होने पर श्वासोच्छ्वास की लय भी बिगड़कर असंयमित हो जाती है। यहाँ प्राणापान की गति को सम करने का उपदेश है क्योंकि प्राणायाम मन को शान्त करने में उपयोगी होता है।प्रथम तो शरीर तथा प्राण को सुव्ययवस्थित करने का उपदेश है और तत्पश्चात् मन और बुद्धि को। इन्द्रियों की भूख मन की चंचलता और बुद्धि की अस्थिरता इन सबको संयमित करने का एक मात्र उपाय है मोक्ष को अपने जीवन का परम लक्ष्य बनाना। लक्ष्य का निर्धारण करने पर समस्त कर्मों का उसी लक्ष्य के प्रति अर्पण करना चाहिए। बुद्धि पर संयम होने का अर्थ इच्छा भय और क्रोध से मुक्त हो जाना है।उपर्युक्त तीनों गुणों में निकट का सम्बन्ध है। किसी अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र लालसा को इच्छा कहते हैं। इच्छा के तीव्र होने पर वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं इसका भय लगा रहता है और उसके प्राप्त हो जाने पर यह भय होता है कि कहीं खो न जाय। जब व्यक्ति इस प्रकार भयभीत होता है तब स्वाभाविक है कि उसके और वस्तु प्राप्ति के बीच कोई विघ्न आ जाये तब वह व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। अत तीनों पर विजय पाना बुद्धि की सभी वृत्तियों को अपने वश में करना है। इस प्रकार इन दो श्लोकों में वर्णित गुणों से सम्पन्न व्यक्ति भगवान् के शब्दों में सदा मुक्त ही है।इन गुणों के होने पर मुक्ति दूर नहीं रहती इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि इच्छा भय और क्रोध से रहित व्यक्ति मुक्त ही है। व्यवहार में भी रोटी पकाना इस प्रकार की शब्दावली प्रचलित है। किन्तु वास्तव में गूंथे हुए आटे को पकाया जाता हैं और न कि रोटी को। परन्तु हम उस वाक्य के अभिप्राय को समझते हैं। ठीक वैसे ही यदि साधक सब साधन सम्पन्न होकर ध्यान का अभ्यास करे तो सब मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर वह शीघ्र ही नित्यमुक्त आत्मा का साक्षात् अनुभव करता है।इस प्रकार समाहित चित्त के पुरुष के लिए कौन सी वस्तु ज्ञेय और ध्येय है इस सम्बन्ध में कहते हैं
।।5.27 5.28।।स्पर्शानिति। यतेन्द्रियेति। बाह्यस्पर्शान् बहिः कृत्वा अनङ्गीकृत्य भ्रुवोः वामदक्षिणदृष्ट्योः क्रोधरागात्मकयोः अन्तरे तद्रहिते स्थानविशेषे चक्षुरुपलक्षितानि सर्वेन्द्रियाणि कृत्वा विधाय प्राणापानौ धर्माधर्मौ चित्तवृत्त्यभ्यन्तरे साम्येनावस्थाप्य आसीत (K omits आसीत)। नसते कौटिल्येन असाम्येन क्रोधादिवशात् व्यवहरति इति नासा चित्तवृत्तिः। एतदेव बाह्ये। एवंविधो योगी सर्वव्यवहारान्वर्तयन्नपि मुक्त एव।