स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।4.3।। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।
।।4.3।। वह ही यह पुरातन योग आज मैंने तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह उत्तम रहस्य है।।
।।4.3।।य एवं पुर्वमुपदिष्टोऽप्यधिकार्यभावाद्विच्छिन्नसंप्रदायोऽभूत् यं बिना च पुरुषार्थो न लभ्यते स एवायं पुरातनोऽनादिगुरुपरंपरागतो योगोऽद्य संप्रदायविच्छेदकाले मयाऽतिस्निग्धेन ते तुभ्यं प्रकर्षेणोक्तः नत्वन्यस्मै कस्मैचित्। कस्मात्। भक्तोऽसि मे सखाचेति। इतिशब्दो हेतौ। यस्मात्त्वं मम भक्तः शरणागतत्वे सत्यत्यन्तप्रीतिमान् सखा च समानवयाः स्निग्धसहायोऽसि सर्वदा भवसि अतस्तुभ्यमुक्त इत्यर्थः। अन्यस्मै कुतो नोच्यते तत्राहि हि यस्मादेतज्ज्ञानमुत्तमं रहस्यं अतिगोप्यम्।
।।4.3।। स एव अयं मया ते तुभ्यम् अद्य इदानीं योगः प्रोक्तः पुरातनः भक्तः असि मे सखा च असि इति। रहस्यं हि यस्मात् एतत् उत्तमं योगः ज्ञानम् इत्यर्थः।।भगवता विप्रतिषिद्धमुक्तमिति मा भूत् कस्यचित् बुद्धिः इति परिहारार्थं चोद्यमिव कुर्वन् अर्जुन उवाच अर्जुन उवाच
।।4.3।। यहाँ भगवान् अब तक के उपदिष्ट ज्ञान के प्राचीनता की घोषणा करके रूढ़िवादी विचारकों की शंका का निर्मूलन कर देते हैं।शिष्य के प्रति स्नेह भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् को यह विश्वास था कि उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा। गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था न हो कि तुम शुल्क दो और मैं पढ़ाऊँगा। प्रेम और स्वातन्त्र्य मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही मन और बुद्धि विकसित होकर खिल उठते हैं। आत्मानुभव का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस योग का ज्ञान उसे दिया।यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो फिर भी अनुभवी पुरुष के उपदेश के बिना वह आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। समस्त बुद्धि वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य की विवेक सार्मथ्य कभी भी नित्य अविकारी आत्मा को विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।किसी के मन में यह शंका न रह जाये कि भगवान् के वाक्यों में परस्पर विरोध है इसलिये अर्जुन मानो आक्षेप करता हुआ प्रश्न पूछता है
।।4.3।।अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्योंके हाथमें पड़कर यह योग नष्ट हो गया है यह देखकर और साथ ही लोगोंको पुरुषार्थरहित हुए देखकर वही यह पुराना योग यह सोचकर कि तू मेरा भक्त और मित्र है अब मैंने तुझसे कहा है क्योंकि यह ज्ञानरूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है।
।।4.1 4.3।।श्रीमदमलबोधाय नमः। हरिः ँ़। बुद्धेः परस्य माहात्म्यं कर्मभेदो ज्ञानमाहात्म्यं चोच्यतेऽस्मिन्नध्याये। पूर्वानुष्ठितश्चायं धर्म इत्याह इममिति।
।।4.3।।स एव अयम् अस्खलितस्वरूपः पुरातनः योगः सख्येन अतिमात्रभक्त्या च माम् एव प्रपन्नाय ते मया प्रोक्तः सपरिकरः सविस्तरम् उक्त इत्यर्थः। मदन्येन केन अपि ज्ञातुं वक्तुं वा न शक्यम् यत इदं वेदान्तोदितम् उत्तमं रहस्यं ज्ञानम्।अस्मिन् प्रसङ्गे भगवदवतारयाथात्म्यं यथावद् ज्ञातुम् अर्जुन उवाच