श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.24।। जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.24।। अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है;  ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है,  वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।4.24।।ननु क्रियमाणं कर्म फलमजनयित्वैव कुतो नश्यति ब्रह्मबोधे तत्कारणोच्छेदादित्याह अनेककारकसाध्या हि यज्ञादिक्रिया भवति। देवतोद्देशेन हि द्रव्यत्यागो यागः। स एव त्यज्यमानद्रव्यस्याग्नौ प्रक्षेपाद्धोम इत्युच्यते। तत्रोद्देश्या देवता संप्रदानम्। त्यज्यमानं द्रव्यं हविःशब्दवाच्यं साक्षाद्धात्वर्थकर्म। तत्फलं तु स्वर्गादिव्यवहितं भावनाकर्म। एवं धारकत्वेन हविषोऽग्नौ प्रक्षेपे साधकतमतया जुह्वादि करणं प्रकाशकतया मन्त्रादीति करणमपि कारकज्ञापकभेदेन द्विविधम्। एवं त्यागोऽग्नौ प्रक्षेपश्च द्वे क्रिये। तत्राद्यायां यजमानः कर्ता प्रक्षेपे तु यजमानपरिक्रीतोऽध्वर्युः प्रक्षेपाधिकरणं चाग्निः। एवं देशकालादिकमप्यधिकरणं सर्वक्रियासाधारणं द्रष्टव्यम्। तदेवं सर्वेषां क्रियाकारकादिव्यवहाराणां ब्रह्माज्ञानकल्पितानां रज्ज्वज्ञानकल्पितानां सर्पधारादण्डादीनां रज्जुतत्त्वज्ञानेनेव ब्रह्मतत्त्वज्ञानेन बाधे बाधितानुवृत्त्या क्रियाकारकादिव्यवहाराभासो दृश्यमानोऽपि दग्धपटन्यायेन न फलाय कल्पत इत्यनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते। ब्रह्मदृष्टिरेव च सर्वयज्ञात्मिकेति स्तूयते। तथाहि अर्प्यतेऽनेनेति करणव्युत्पत्त्याऽर्पणं जुह्वादि मन्त्रादि च। एवमर्प्यतेऽस्मा इति व्युत्पत्त्याऽर्पणं देवतारूपं संप्रदानम्। एवमर्प्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्याऽर्पणमधिकरणं देशकालादि। तत्सर्वं ब्रह्मणि कल्पितत्वाद्ब्रह्मैव रज्जुकल्पितभुजङ्गवदधिष्ठानव्यतिरेकेणासदित्यर्थः। एवं हविस्त्यागप्रक्षेपक्रिययोः साक्षात्कर्म कारकं तदपि ब्रह्मैव। एंव यत्र प्रक्षिप्यतेऽग्नौ सोऽपि ब्रह्मैव। ब्रह्माग्नाविति समस्तं पदम्। तथा येन कर्त्रा यजमानेनाध्वर्युणा च त्यज्यते प्रक्षिप्यते च तदुभयमपि कर्तृकारकं कर्तरि विहितया तृतीययानूद्य ब्रह्मेति विधीयते ब्रह्मणेति। एवं हुतमिति हवनं त्यागग्रिया प्रक्षेपक्रिया च तदपि ब्रह्मैव। तथा तेन हवनेन यद्गन्तव्यं स्वर्गादिव्यवहितं कर्म तदपि ब्रह्मैव। अत्रत्य एवकारः सर्वत्र संबध्यते। हुतमित्यत्रापीतएव ब्रह्मेत्यनुषज्यते। व्यवधानाभावात् साकाङ्क्षत्वाच्चचित्पतिस्त्वा पुनातु इत्यादावच्छिद्रेणेत्यादिपरवाक्यशेषवत्। अनेन रूपेण कर्मणि समाधिर्ब्रह्मज्ञानं यस्य स कर्मसमाधिस्तेन ब्रह्मविदा कर्मानुष्ठात्रापि ब्रह्म परमानन्दाद्वयं गन्तव्यमित्यनुषज्यते। साकाङ्क्षत्वादव्यवधानाच्चया ते अग्ने रजाशया इत्यादौ तनूर्वर्षिष्ठेत्यादिपूर्ववाक्यशेषवत्। अथवाऽर्प्यतेऽस्मै फलायेति व्युत्पत्त्याऽर्पणपदेनैव स्वर्गादिफलमपि ग्राह्मम्। तथाचब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिने त्युत्तरार्धं ज्ञानफलकथनायैवेति समञ्जसम्। अस्मिन्पक्षे ब्रह्मकर्मसमाधिनेत्येकं वा पदम्। पूर्वं ब्रह्मपदं हुतमित्यनेन संबध्यते चरमं गन्तव्यपदेनेति भिन्नं वा पदम्। एवंच नानुषङ्गद्वयक्लेश इति द्रष्टव्यम्। ब्रह्म गन्तव्यमित्यभेदेनैव तत्प्राप्तिरुपचारात्। अतएव न स्वर्गादि तुच्छफलं तेन गन्तव्यं विद्यया आविद्यककारकव्यवहारोच्छेदात्। तदुक्तं वार्तिककृद्भिःकारकव्यवहारे हि शुद्धं वस्तु न वीक्ष्यते। शुद्धे वस्तुनि सिद्धे च कारकव्यापृतिः कुतः।। इति। अर्पणादिकारकस्वरूपानुपमर्देनैव तत्र नामादाविव ब्रह्मदृष्टिः क्षिप्यते संपन्मात्रेण फलविशेषायेति केषांचिद्व्याख्यानंभाष्यकृद्भिरेव निराकृतमुपक्रमादिविरोधाद्ब्रह्मविद्याप्रकरणे संपन्मात्रस्याप्रसक्तत्वादित्यादियुक्तिभिः।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.24)ब्रह्म अर्पणं येन करणेन ब्रह्मवित् हविः अग्नौ अर्पयति तत् ब्रह्मैव इति पश्यति तस्य आत्मव्यतिरेकेण अभावं पश्यति यथा शुक्तिकायां रजताभावं पश्यति तदुच्यते ब्रह्मैव अर्पणमिति यथा यद्रजतं तत् शुक्तिकैवेति। ब्रह्म अर्पणम् इति असमस्ते पदे। यत् अर्पणबुद्ध्या गृह्यते लोके तत् अस्य ब्रह्मविदः ब्रह्मैव इत्यर्थः। ब्रह्म हविः तथा यत् हविर्बुद्ध्या गृह्यमाणं तत् ब्रह्मैव अस्य। तथा ब्रह्माग्नौ इति समस्तं पदम्। अग्निरपि ब्रह्मैव यत्र हूयते ब्रह्मणा कर्त्रा ब्रह्मैव कर्तेत्यर्थः। यत् तेन हुतं हवनक्रिया तत् ब्रह्मैव। यत् तेन गन्तव्यं फलं तदपि ब्रह्मैव ब्रह्मकर्मसमाधिना ब्रह्मैव कर्म ब्रह्मकर्म तस्मिन् समाधिः यस्य सः ब्रह्मकर्मसमाधिः तेन ब्रह्मकर्मसमाधिना ब्रह्मैव गन्तव्यम्।।एवं लोकसंग्रहं चिकीर्षुणापि क्रियमाणं कर्म परमार्थतः अकर्म ब्रह्मबुद्ध्युपमृदितत्वात्। एवं सति निवृत्तकर्मणोऽपि सर्वकर्मसंन्यासिनः सम्यग्दर्शनस्तुत्यर्थं यज्ञत्वसंपादनं ज्ञानस्य सुतरामुपपद्यते यत् अर्पणादि अधियज्ञे प्रसिद्धं तत् अस्य अध्यात्मं ब्रह्मैव परमार्थदर्शिन इति। अन्यथा सर्वस्य ब्रह्मत्वे अर्पणादीनामेव विशेषतो ब्रह्मत्वाभिधानम् अनर्थकं स्यात्। तस्मात् ब्रह्मैव इदं सर्वमिति अभिजानतः विदुषः कर्माभावः। कारकबुद्ध्यभावाच्च। न हि कारकबुद्धिरहितं यज्ञाख्यं कर्म दृष्टम्। सर्वमेव अग्निहोत्रादिकं कर्म शब्दसमर्पितदेवताविशेषसंप्रदानादिकारकबुद्धिमत् कर्त्रभिमानफलाभिसंधिमच्च दृष्टम् न उपमृदितक्रियाकारकफलभेदबुद्धिमत् कर्तृत्वाभिमानफलाभिसंधिरहितं वा। इदं तु ब्रह्मबुद्ध्युपमृदितार्पणादिकारकक्रियाफलभेदबुद्धि कर्म। अतः अकर्मैव तत्। तथा च दर्शितम् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः गुणा गुणेषु वर्तन्ते नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् इत्यादिभिः। तथा च दर्शयन् तत्र तत्र क्रियाकारकफलभेदबुद्ध्युपमर्दं करोति। दृष्टा च काम्याग्निहोत्रादौ कामोपमर्देन काम्याग्निहोत्रादिहानिः। तथा मतिपूर्वकामतिपूर्वकादीनां कर्मणां कार्यविशेषस्य आरम्भकत्वं दृष्टम्। तथा इहापि ब्रह्मबुद्ध्युपमृदितार्पणादिकारकक्रियाफलभेदबुद्धेः बाह्यचेष्टामात्रेण कर्मापि विदुषः अकर्म संपद्यते। अतः उक्तम् समग्रं प्रविलीयते इति।।अत्र केचिदाहुः यत् ब्रह्म तत् अर्पणादीनि ब्रह्मैव किल अर्पणादिना पञ्चविधेन कारकात्मना व्यवस्थितं सत् तदेव कर्म करोति। तत्र न अर्पणादिबुद्धिः निवर्त्यते किं तु अर्पणादिषु ब्रह्मबुद्धिः आधीयते यथा प्रतिमादौ विष्ण्वादिबुद्धिः यथा वा नामादौ ब्रह्मबुद्धिरिति।।

सत्यम् एवमपि स्यात् यदि ज्ञानयज्ञस्तुत्यर्थं प्रकरणं न स्यात्। अत्र तु सम्यग्दर्शनं ज्ञानयज्ञशब्दितम् अनेकान् यज्ञशब्दितान् क्रियाविशेषान् उपन्यस्य श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः (गीता 4.33) इति ज्ञानं स्तौति। अत्र च समर्थमिदं वचनम् ब्रह्मार्पणम् इत्यादि ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादने अन्यथा सर्वस्य ब्रह्मत्वे अर्पणादीनामेव विशेषतो ब्रह्मत्वाभिधानमनर्थकं स्यात्। ये तु अर्पणादिषु प्रतिमायां विष्णुदृष्टिवत् ब्रह्मदृष्टिः क्षिप्यते नामादिष्विव चेति ब्रुवते न तेषां ब्रह्मविद्या उक्ता इह विवक्षिता स्यात् अर्पणादिविषयत्वात् ज्ञानस्य। न च दृष्टिसंपादनज्ञानेन मोक्षफलं प्राप्यते। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम् इति चोच्यते। विरुद्धं च सम्यग्दर्शनम् अन्तरेण मोक्षफलं प्राप्यते इति। प्रकृतविरोधश्च सम्यग्दर्शनं च प्रकृतम् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यत्र अन्ते च सम्यग्दर्शनम् तस्यैव उपसंहारात्। श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् इत्यादिना सम्यग्दर्शनस्तुतिमेव कुर्वन् उपक्षीणः अध्यायः। तत्र अकस्मात् अर्पणादौ ब्रह्मदृष्टिः अप्रकरणे प्रतिमायामिव विष्णुदृष्टिः उच्यते इति अनुपपन्नम्। तस्मात् यथाव्याख्यातार्थ एव अयं श्लोकः।।तत्र अधुना सम्यग्दर्शनस्य यज्ञत्वं संपाद्य तत्स्तुत्यर्थम् अन्येऽपि यज्ञा उपक्षिप्यन्ते

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।4.24।। यह एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसको भारत में भोजन प्रारम्भ करने के पूर्व पढ़ा जाता है किन्तु अधिकांश लोग न तो इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयत्न ही करते हैं। तथापि इसका अर्थ गंभीर है और इसमें सम्पूर्ण वेदान्त के सार को बता दिया गया है।वह अनन्त पारमार्थिक सत्य जो इस दृश्यमान नित्य परिवर्तनशील जगत् का अधिष्ठान है वेदान्त में ब्रह्म शब्द के द्वारा निर्देशित किया जाता है। यही ब्रह्म एक शरीर से परिच्छिन्नसा हुआ आत्मा कहलाता है। एक ही तत्त्व इन दो शब्दों से लक्षित किया है और वेदान्त केसरी की यह गर्जना है कि आत्मा ही ब्रह्म है।इस श्लोक में वैदिक यज्ञ का रूपक है। प्रत्येक यज्ञ में चार प्रमुख आवश्यक वस्तुएं होती हैं (1) यज्ञ का देवता जिसे आहुति दी जाती है (2) अग्नि (3) हवन के योग्य द्रव्य पदार्थ हवि (शाकल्य) और (4) यज्ञकर्ता व्यक्ति।यज्ञ भावना से कर्म करते हुए ज्ञानी पुरुष की मन की स्थिति एवं अनुभूति का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। उसके अनुभव की दृष्टि से एक पारमार्थिक सत्य ही विद्यमान है न कि अविद्या से उत्पन्न नामरूपमय यह जगत्। अत वह जानता है कि सभी यज्ञों की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है जिनमें देवता अग्नि हवि और यज्ञकर्ता सभी ब्रह्म हैं। जब एक तरंग दूसरी तरंग पर से उछलती हुई अन्य साथी तरंग से मिल जाती है तब इस दृश्य को देखते हुए हम जानते हैं कि ये सब तरंगे समुद्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। समुद्र में ही समुद्र का खेल चल रहा है।यदि कोई व्यक्ति जगत् के असंख्य नामरूपों कर्मों और व्यवहारों में अंतर्बाह्य व्याप्त अधिष्ठान स्वरूप परमार्थ तत्त्व को देख सकता है तो फिर उसे सर्वत्र सभी परिस्थितियों में वस्तुओं और प्राणियों का दर्शन अनन्त आनन्द स्वरूप सत्य का ही स्मरण कराता है। संत पुरुष ब्रह्म का ही आह्वान करके प्रत्येक कर्म करता है इसलिये उसके सब कर्म लीन हो जाते हैं।भोजन के पूर्व इस श्लोक के पाठ का प्रयोजन अब स्वत स्पष्ट हो जाता है। शरीर धारण के लिये भोजन आवश्यक है और तीव्र क्षुधा लगने पर किसी भी प्रकार का अन्न स्वादिष्ट लगता है। इस प्रार्थना का भाव यह है कि भोजन के समय भी हमें सत्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए। यह ध्यान रहे कि भोक्तारूप ब्रह्म ब्रह्म का आह्वान करके अन्नरूप ब्रह्म की आहुति उदर में स्थित अग्निरूप ब्रह्म को ही दे रहा है। इस ज्ञान का निरन्तर स्मरण रहने पर मनुष्य भोगों से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।यज्ञ की सर्वोच्च भावना को स्पष्ट करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को समझाते हैं कि सम्यक् भावना के होने से किस प्रकार प्रत्येक कर्म यज्ञ बन जाता है

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.24।।किये जानेवाले कर्म अपना कार्य आरम्भ किये बिना ही ( कुछ फल दिये बिना ही ) किस कारणसे फलसहित विलीन हो जाते हैं इसपर कहते हैं ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिस साधनद्वारा अग्निमें हवि अर्पण करता है उस साधनको ब्रह्मरूप ही देखा करता है अर्थात् आत्माके सिवा उसका अभाव देखता है। जैसे ( सीपको जाननेवाला ) सीपमें चाँदीका अभाव देखता है ब्रह्म ही अर्पण है इस पदसे भी वही बात कही जाती है। अर्थात् जैसे यह समझता है कि जो चाँदीके रूपमें दीख रही है वह सीप ही है। ( वैसे ही ब्रह्मवेत्ता भी समझता है कि जो अर्पण दीखता है वह ब्रह्म ही है ) ब्रह्म और अर्पण यह दोनों पद अलगअलग हैं। अभिप्राय यह कि संसारमें जो अर्पण माने जाते हैं वे स्रुक् स्रुव आदि सब पदार्थ उस ब्रह्मवेत्ताकी दृष्टिमें ब्रह्म ही हैं। वैसे ही जो वस्तु हविरूपसे मानी जाती है वह भी उसकी दृष्टिमें ब्रह्म ही होता है। ब्रह्माग्नौ यह पद समासयुक्त है। इसलिये यह अर्थ हुआ कि ब्रह्मरूप कर्ताद्वारा जिसमें हवन किया जाता है वह अग्नि भी ब्रह्म ही है और वह कर्ता भी ब्रह्म ही है और जो उसके द्वारा हवनरूप क्रिया की जाती है वह भी ब्रह्म ही है। उस ब्रह्मकर्ममें स्थित हुए पुरुषद्वारा प्राप्त करनेयोग्य जो फल है वह भी ब्रह्म ही है। अर्थात् ब्रह्मरूप कर्ममें जिसके चित्तका समाधान हो चुका है उस पुरुषद्वारा प्राप्त किये जानेयोग्य जो फल है वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार लोकसंग्रह करना चाहनेवाले पुरुषद्वारा किये हुए कर्म भी ब्रह्मबुद्धिसे बाधित होनेके कारण अर्थात् फल उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित कर दिये जानेके कारण वास्तवमें अकर्म ही हैं। ऐसा अर्थ मान लेनेपर कर्मोंको छोड़ देनेवाले कर्म संन्यासीके ज्ञानको भी यथार्थ ज्ञानकी स्तुतिके लिये यज्ञरूप समझना भली प्रकार बन सकता है अधियज्ञमें जो स्रुवादि वस्तुएँ प्रसिद्ध हैं वे सब इस यथार्थ ज्ञानी संन्यासीके ( सम्यक्ज्ञानरूप ) अध्यात्मयज्ञमें ब्रह्म ही हैं। उपर्युक्त अर्थ नहीं माननेसे वास्तवमें सब ही ब्रह्मरूप होनेके कारण केवल स्रुव आदिको ही विशेषतासे ब्रह्मरूप बतलाना व्यर्थ होगा। सुतरां यह सब कुछ ब्रह्म ही है इस प्रकार समझनेवाले ज्ञानीके लिये वास्तवमें सब कर्मोंका अभाव ही हो जाता है। तथा उसके अन्तःकरणमें ( क्रिया फल आदि ) कारकसम्बन्धी भेदबुद्धिका अभाव होनेके कारण भी यही सिद्ध होता है क्योंकि कोई भी यज्ञ नामक कर्म कारकसम्बन्धी भेदबुद्धिसे रहित नहीं देखा गया। अभिप्राय यह है कि अग्निहोत्रादि सभी कर्म ( इन्द्राय वरुणाय आदि ) शब्दोंद्वारा हवि आदि द्रव्य जिनके अर्पण किये जाते हैं उन देवताविशेषरूप सम्प्रदान आदि कारकबुद्धिवाले तथा कर्तापनके अभिमानसे और फलकी इच्छासे युक्त देखे गये हैं। जिसमेंसे क्रिया कारक और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी हो तथा जो कर्तापनके अभिमानसे और फलकी इच्छासे रहित हो ऐसा यज्ञ नहीं देखा गया। परंतु यह उपर्युक्त कर्म तो ऐसा है कि जिसमें सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जानेके कारण अर्पणादि कारक क्रिया और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी है। इसलिये यह अकर्म ही है। यही बात कर्मण्यकर्म यः पश्येत् कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः गुणा गुणेषु वर्तन्ते नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् इत्यादि श्लोकोंद्वारा भी दिखलायी गयी है। और इसी प्रकार दिखलाते हुए भगवान् जगहजगह क्रिया कारक और फलसम्बन्धी भेदबुद्धिका निषेध कर रहे हैं। देखा भी गया है कि सकाम अग्निहोत्रादिमें कामना न रहनेपर वे सकाम अग्निहोत्रादि नहीं रहते। ( उनकी सकामता नष्ट हो जाती है। ) तथा यह भी देखा गया है कि जानबूझकर किये हुए और अनजानमें किये हुए कर्म भिन्नभिन्न कार्योंके आरम्भक होते हैं अर्थात् उनका फल अलगअलग होता है। वैसे ही यहाँ भी जिस पुरुषकी सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जानेसे ( स्रुव हवि आदिमें ) क्रिया कारक और फलसम्बन्धी भेदबुद्धि नष्ट हो गयी है उस ज्ञानी पुरुषके बाह्य चेष्टामात्रसे होनेवाले कर्म भी अकर्म हो जाते हैं। इसलिये कहा है कि उसके फलसहित कर्म विलीन हो जाते हैं। इस विषयमें कोईकोई टीकाकार कहते हैं कि जो ब्रह्म है वही स्रुव आदि है अर्थात् ब्रह्म ही स्रुव आदि पाँच प्रकारके कारकोंके रूपमें स्थित है और वही कर्म किया करता है ( उनके सिद्धान्तानुसार ) उपर्युक्त यज्ञमें स्रुव आदि बुद्धि निवृत्त नहीं की जाती किंतु स्रुव आदिमें ब्रह्मबुद्धि स्थापित की जाती है जैसे कि मूर्ति आदिमें विष्णु आदि देवबुद्धि या नाम आदिमें ब्रह्मबुद्धि की जाती है। ठीक है यदि यह प्रकरण ज्ञानयज्ञकी स्तुतिके लिये न होता तो यह अर्थ भी हो सकता था। परंतु इस प्रकरणमें तो यज्ञ नामसे कहे जानेवाले अलगअलग बहुतसे क्रियाभेदोंको कहकर फिर द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ कल्याणकर है इस कथनद्वारा ज्ञानयज्ञ शब्दसे कथित सम्यक् दर्शनकी स्तुति करते हैं। तथा इस प्रकरणमें जो ब्रह्मार्पणम् इत्यादि वचन है यह ज्ञानको यज्ञरूपसे सम्पादन करनेमें समर्थ भी है नहीं तो वास्तवमें सब कुछ ब्रह्मरूप होनेके कारण केवल अर्पण ( स्रुव ) आदिको ही अलग करके ब्रह्मरूपसे विधान करना व्यर्थ होगा। जो ऐसा कहते हैं कि यहाँ मूर्तिमें विष्णु आदिकी दृष्टिके सदृश या नामादिमें ब्रह्मबुद्धिकी भाँति अर्पण ( स्रुव ) आदि यज्ञकी सामग्रीमें ब्रह्मबुद्धि स्थापन करायी गयी है उनकी दृष्टिसे सम्भवतः इस प्रकरणमें ब्रह्मविद्या नहीं कही गयी है क्योंकि ( उनके मतानुसार ) ज्ञानका विषय स्रुव आदि यज्ञकी सामग्री ही है ब्रह्म नहीं। इस प्रकार केवल ब्रह्मदृष्टि सम्पादनरूप ज्ञानसे मोक्षरूप फल नहीं मिल सकता और यहाँ ( स्पष्ट ही ) यह कहा है कि उसके द्वारा प्राप्त किया जानेवाला फल ब्रह्म ही है फिर बिना यथार्थ ज्ञानके मोक्षरूप फल मिलता है यह कहना सर्वथा विपरीत है। इसके सिवा ( ऐसा मान लेनेसे ) प्रकरणमें भी विरोध आता है। अभिप्राय यह है कि जो कर्ममें अकर्म देखता है इस प्रकार यहाँ आरम्भमें सम्यक् ज्ञानका ही प्रकरण है तथा उसीमें उपसंहार होनेके कारण अन्तमें भी यथार्थ ज्ञानका ही प्रकरण है। क्योंकि द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठतर है ज्ञानको पाकर परम शान्तिको तुरंत ही प्राप्त हो जाता है इत्यादि वचनोंसे यथार्थ ज्ञानकी स्तुति करते हुए ही यह अध्याय समाप्त हुआ है। फिर बिना प्रकरण अकस्मात् मूर्तिमें विष्णुदृष्टिकी भाँति स्रुव आदिमें ब्रह्मदृष्टिका विधान बतलाना उपयुक्त नहीं। सुतरां जिस प्रकार इसकी व्याख्या की गयी है इस श्लोकका अर्थ वैसा ही है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhavacharya

।।4.24।।ज्ञानावस्थितचेतस्त्वं स्पष्टयति ब्रह्मार्पणमिति। सर्वमेतद्ब्रह्मेत्युच्यते तदधीनसत्ताप्रवृत्तिमत्त्वात् न तु तत्स्वरूपत्वात्। उक्तं हित्वदधीनं यतः सर्वमतः सर्वो भवानिति। वदन्ति मुनयः सर्वे न तु सर्वस्वरूपतः इति पाद्मे। सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रम् ऐ.उ.5।3 इति च एतं ह्येव बह्वृचः ऐ.आ.3।2।9 इत्यादि च। समाधिना सह ब्रह्मैव कर्म।

Sanskrit Commentary By Sri Ramanuja

।।4.24।।हविः विशेष्यते अर्प्यते अनेन इति अर्पणं स्रुगादि तद् ब्रह्मकार्यत्वाद् ब्रह्म ब्रह्म यस्य हविषः अर्पणं तद्ब्रह्मार्पणम्। ब्रह्म हविः स्वयं च ब्रह्मभूतं ब्रह्माग्नौ ब्रह्मभूते अग्नौ ब्रह्मणा कर्त्रा हुतम् इति सर्वं कर्मब्रह्मात्मकत्वाद् ब्रह्ममयम् इति यः समाधत्ते स ब्रह्मकर्मसमाधिः। तेन ब्रह्मकर्मसमाधिना ब्रह्म एव गन्तव्यम्। ब्रह्मात्मकतया ब्रह्मभूतम् आत्मस्वरूपं गन्तव्यम्। मुमुक्षूणां क्रियमाणं कर्म परब्रह्मात्मकम् एव इत्यनुसन्धानयुक्ततया ज्ञानाकारं साक्षादात्मावलोकनसाधनम् न ज्ञाननिष्ठाव्यवधानेन इत्यर्थः।एवं कर्मणो ज्ञानाकारतां प्रतिपाद्य कर्मयोगभेदान् आह

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

4.24 Brahmarpanam etc. That is to be offered to the Brahman (list) : that, the offering of which is in the Brahman i.e., the reentrance of which is only into That, just from which it has originated. The Brahman (2nd) : That which is the same as the entire universe what we see - this is that very oblation. Into the Brahman-fire : into the fire which is the same as the Brahman, the highly tranil Supreme Consciousness. By the Brahman : by one or the other action. Is poured : is offered for the augmentation of It's lumination. Hence, a man of Yoga, whose Brahman-action of this sort is itself a deep concentration - by him, the Brahman alone is [a goal] to be attained i.e., to be realised, not anything else; for there is no other thing. Alternatively [in the verse] the meaning 'by him' brings in, by implication, the meaning 'by whom'. So the following is the alignment [of words] : The action, in which the Brahman-oblation, intended to be an offering to a deity of the Brahman-nature, has been indeed poured into the Brahman-fire by the sacrificer, identical with the Brahman - that very Brahman-action of this sort is itself a deep contemplaiton, because it is the means to gain the innate nature of the Self. And what is attained by this Brahman-action-contemplation is the very Brahman Itself and not any other fruit. Indeed it has been maintained [by the Lord] as : 'The way in which men resort to Me, [in the same way I favour them]'. (IV, II) 'Those, who have cultivated the nature of performing sacrifice which is nothing but Me, but of the delimited nature - they attain, therefore, the fruit of similar [limited] nature. This is different matter. But, with regard to those who have realised the nature of the sacrifice identical with Me ( the Supreme Consciousness), the Unlimited and complete; how could they be entertaining a craving for a bit of limited fruit ?' This is the idea here. Thus, a top secret is furnished by this and by the succeeding verses. that has been also detailed by us (Ag.) - even though our intelligence is limited - as far as our intelligence permits, by not transgressing the instructions of our preceptors. Maybe, for a person without a regular course of the oral tradition [of the system], this looks like a picture painted on the sky and does not appeal to his mind. On that account we should not be blamed. It has been declared by some, in this context, that [here in this verse] the oblation, the fire and the instruments like sruk [used for offering the oblation into the fire in the sacrifice] and also the act [of offering] are all adjectives alifying the Brahmam. This [explanation] deserves to be ignored. For, these commentators have not troden on the path of the secret tradition.

English Translation by Shri Purohit Swami

4.24 For him, the sacrifice itself is the Spirit; the Spirit and the oblation are one; it is the Spirit Itself which is sacrificed in Its own fire, and the man even in action is united with God, since while performing his act, his mind never ceases to be fixed on Him.

English Translation By Swami Sivananda

4.24 Brahman is the oblation; Brahman is the melted butter (ghee); by Brahman is the oblation poured into the fire of Brahman; Brahman verily shall be reached by him who always sees Brahman in action.