आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।6.3।।फलेच्छासे रहित जो कर्मयोग है वह ध्यानयोगका बहिरंग साधन है इस उद्देश्यसे उसकी संन्यासरूपसे स्तुति करके अब यह भाव दिखलाते हैं कि कर्मयोग ध्यानयोगका साधन है जो ध्यानयोगमें आरूढ़ नहीं ध्यानयोगमें स्थित नहीं रह सकता है ऐसे योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मुनि अर्थात् कर्मफलत्यागी पुरुषके लिये ध्यानयोगपर आरूढ़ होनेका साधन कर्म बतलाया गया है। तथा वही जब योगारूढ़ हो जाता है तो उसके लिये योगारूढ़ता ( ध्यानयोगमें सदा स्थित रहनेका ) साधन शम उपशम यानी सर्व कर्मोंसे निवृत्त होना बतलाया गया है। ( मनुष्य ) जितनाजितना कर्मोंसे उपरत होता जाता है उतनाउतना ही उस परिश्रमरहित जितेन्द्रिय पुरुषका चित्त समाहित होता जाता है। ऐसा होनेसे वह झटपट योगारूढ़ हो जाता है। व्यासजीने भी यही कहा है कि ब्राह्मणके लिये दूसरा ऐसा कोई धन नहीं है जैसा कि एकता समता सत्यता शील स्थिति अहिंसा आर्जव और उनउन क्रियाओंसे उपराम होना है।
।।6.3।। आरुरुक्षोः आरोढुमिच्छतः अनारूढस्य ध्यानयोगे अवस्थातुमशक्तस्यैवेत्यर्थः। कस्य तस्य आरुरुक्षोः मुनेः कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः। किमारुरुक्षोः योगम्। कर्म कारणं साधनम् उच्यते। योगारूढस्य पुनः तस्यैव शमः उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारूढस्य साधनम् उच्यते इत्यर्थः। यावद्यावत् कर्मभ्यः उपरमते तावत्तावत् निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं समाधीयते। तथा सति स झटिति योगारूढो भवति। तथा चोक्तं व्यासेन नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति चित्तं यथैकता समता सत्यता च। शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः (महा0 शान्ति0 175।37) इति।।अथेदानीं कदा योगारूढो भवति इत्युच्यते
।।6.3।। जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।
।।6.3।। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।।