यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।6.2।।इससे मुख्य संन्यासित्व और योगित्व इष्ट नहीं है। इसी भावको दिखलानेके लिये कहते हैं श्रुतिस्मृतिके ज्ञाता पुरुष सर्वकर्म और उनके फलके त्यागरूप जिस भावको वास्तविक संन्यास कहते हैं हे पाण्डव कर्मानुष्ठानरूप योगको ( निष्काम कर्मयोगको ) भी तू वही वास्तविक संन्यास जान। प्रवृत्तिरूप कर्मयोगकी उससे विपरीत निवृत्तिरूप परमार्थसंन्यासके साथ कैसी समानता स्वीकार करके एकता कही जाती है ऐसा प्रश्न होनेपर यह कहा जाता है परमार्थसंन्यासके साथ कर्मयोगकी कर्तृविषयक समानता है क्योंकि जो परमार्थसंन्यासी है वह सब कर्मसाधनोंका त्याग कर चुकता है इसलिये सब कर्मोंका और उनके फलविषयक संकल्पोंका जो कि प्रवृत्तिहेतुक कामके कारण है त्याग करता है। और यह कर्मयोगी भी कर्म करता हुआ फलविषयक संकल्पोंका त्याग करता ही है ( इस प्रकार दोनोंकी समानता है ) इस अभिप्रायको दिखलाते हुए कहते हैं जिसने फलविषयक संकल्पोंका यानी इच्छाओंका त्याग न किया हो ऐसा कोई भी कर्मी योगी नहीं हो सकता। अर्थात् ऐसे पुरुषका चित्त समाधिस्थ होना सम्भव नहीं है क्योंकि फलका संकल्प ही चित्तके विक्षेपका कारण है। इसलिये जो कोई कर्मी फलविषयक संकल्पोंका त्याग कर देता है वही योगी होता है। अभिप्राय यह है कि चित्तविक्षेपका कारण जो फलविषयक संकल्प है उसके त्यागसे ही मनुष्य समाधानयुक्त यानी चित्तविक्षेपसे रहित योगी होता है। इस प्रकार परमार्थसंन्यासकी और कर्मयोगकी कर्त्ताके भावसे सम्बन्ध रखनेवाली जो त्यागविषयक समानता है उसकी अपेक्षासे ही कर्मयोगकी स्तुति करनेके लिये यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इस श्लोकमें उसे संन्यास बतलाया है।
।।6.2।। यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागलक्षणं परमार्थसंन्यासं संन्यासम् इति प्राहुः श्रुतिस्मृतिविदः योगं कर्मानुष्ठानलक्षणं तं परमार्थसंन्यासं विद्धि जानीहि हे पाण्डव। कर्मयोगस्य प्रवृत्तिलक्षणस्य तद्विपरीतेन निवृत्तिलक्षणेन परमार्थसंन्यासेन कीदृशं सामान्यमङ्गीकृत्य तद्भाव उच्यते इत्यपेक्षायाम् इदमुच्यते अस्ति हि परमार्थसंन्यासेन सादृश्यं कर्तृद्वारकं कर्मयोगस्य। यो हि परमार्थसंन्यासी स त्यक्तसर्वकर्मसाधनतया सर्वकर्मतत्फलविषयं संकल्पं प्रवृत्तिहेतुकामकारणं संन्यस्यति। अयमपि कर्मयोगी कर्म कुर्वाण एव फलविषयं संकल्पं संन्यस्यति इत्येतमर्थं दर्शयिष्यन् आह न हि यस्मात् असंन्यस्तसंकल्पः असंन्यस्तः अपरित्यक्तः फलविषयः संकल्पः अभिसंधिः येन सः असंन्यस्तसंकल्पः कश्चन कश्चिदपि कर्मी योगी समाधानवान् भवति न संभवतीत्यर्थः फलसंकल्पस्य चित्तवेक्षेपहेतुत्वात्। तस्मात् यः कश्चन कर्मी संन्यस्तफलसंकल्पोभवेत् स योगी समाधानवान् अविक्षिप्तचित्तो भवेत् चित्तविक्षेपहेतोः फलसंकल्पस्य संन्यस्तत्वादित्यभिप्रायः।।एवं परमार्थसंन्यासकर्मयोगयोः कर्तृद्वारकं संन्याससामान्यमपेक्ष्य यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इति कर्मयोगस्य स्तुत्यर्थं संन्यासत्वम् उक्तम्। ध्यानयोगस्य फलनिरपेक्षः कर्मयोगो बहिरङ्गं साधनमिति तं संन्यासत्वेन स्तुत्वा अधुना कर्मयोगस्य ध्यानयोगसाधनत्वं दर्शयति
।।6.2।। हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
।।6.2।। हे पाण्डव ! जिसको (शास्त्रवित्) संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।