श्री भगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- (कुछ) कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को "संन्यास" समझते हैं और विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।।
Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya
।।18.2।। --,काम्यानाम् अश्वमेधादीनां कर्मणां न्यासं संन्यासशब्दार्थम्? अनुष्ठेयत्वेन प्राप्तस्य अनुष्ठानम्? कवयः पण्डिताः केचित् विदुः विजानन्ति। नित्यनैमित्तिकानाम् अनुष्ठीयमानानां सर्वकर्मणाम् आत्मसंबन्धितया प्राप्तस्य फलस्य परित्यागः सर्वकर्मफलत्यागः तं प्राहुः कथयन्ति त्यागं त्यागशब्दार्थं विचक्षणाः पण्डिताः। यदि काम्यकर्मपरित्यागः फलपरित्यागो वा अर्थः वक्तव्यः? सर्वथा परित्यागमात्रं संन्यासत्यागशब्दयोः एकः अर्थः स्यात्? न घटपटशब्दाविव जात्यन्तरभूतार्थौ।।
ननु नित्यनैमित्तिकानां कर्मणां फलमेव नास्ति इति आहुः। कथम् उच्यते तेषां फलत्यागः? यथा वन्ध्यायाः पुत्रत्यागः नैष दोषः? नित्यानामपि कर्मणां भगवता फलवत्त्वस्य इष्टत्वात्। वक्ष्यति हि भगवान् अनिष्टमिष्टं मिश्रं च (गीता 18।12) इति न तु संन्यासिनाम् (गीता 18।12) इति च। संन्यासिनामेव हि केवलं कर्मफलासंबन्धं दर्शयन् असंन्यासिनां नित्यकर्मफलप्राप्तिम् भवत्यत्यागिनां प्रेत्य (गीता 18।12) इति दर्शयति।।
Hindi Commentary By Swami Chinmayananda
।।18.2।। काम्य कर्मों का त्याग संन्यास कलाता है और समस्त कर्मों का फलत्याग त्याग कहा जाता हा। शास्त्रीय सिद्धांतों से अनभिज्ञ लोगों को इन दोनों में कोई अन्तर नहीं ज्ञात होता? क्योंकि कामना सदैव फलप्राप्ति की ही होती है। अत? कामना प्रेरित कर्मों का त्याग और कर्मफल की आसक्ति का त्याग ये दोनों ही समान प्रतीत होते हैं। इसका कारण शास्त्रों से अनभिज्ञता अथवा उनका सतही अध्ययन ही हो सकता है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों का अर्थ कामना का त्याग ही है? परन्तु त्याग और संन्यास में कुछ अन्तर है। फिर भी त्याग? संन्यास का अविभाज्य अंग है। मनुष्य वर्तमान में कर्म करता है और आशा करता है कि उसे इष्टफल भविष्य में प्राप्त होगा। वर्तमान के कर्म का परिणाम ही भावी फल है। इसलिए? निष्काम कर्म वर्तमान में ही हो सकते हैं? जब कि फलभोग की चिन्ता से उत्पन्न होने वाली मन की व्याकुलता का संबंध भविष्य काल से होता है। वर्तमान के कर्म की परिसमाप्ति भावी फल में होती है। कामना और विक्षेप मन में अशान्ति उत्पन्न करते हैं। कामना जितनी अधिक तीव्र होगी? उतनी ही अधिक मात्रा में हमारी आन्तरिक शक्तियों का ह्रास होगा और ऐसा शक्तिहीन पुरुष किसी भी कर्म को कुशलता एवं उत्साह के साथ सम्पादित नहीं कर सकता। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि अहंकार या जीव ही इच्छा करता है। अत? अहंकार की निवृत्ति का अर्थ है? व्यष्टि जीव की विरति और उस साधक की अपने सर्वोच्च स्वरूप में दृढ़ स्थिति।कर्म वर्तमान में होते हैं और उनके फल भविष्य में प्राप्त होने की सम्भावना रहती है। जो व्यक्ति फल की चिन्ता करता है वह वर्तमान में कार्य करने की अपनी क्षमता खो देता है। स्वाभाविक ही है कि उस व्यक्ति को इष्ट फल मिलने की सम्भावना कम हो जाती है? क्योंकि कर्म का फल कर्ता के प्रयत्न तथा प्रकृति के नियमादि अन्य कई कारणों पर निर्भर करता है। अत हमें फलासक्ति का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि त्याग साधन है और संन्यास साध्य है। त्याग और संन्यास की साधना का संबंध हमारे कर्मों से है। भगवान् श्रीकृष्ण कर्म के महत्त्व पर बल देते हुए कभी नहीं थकते। इन दोनों शब्दों में से कोई भी यह नहीं दर्शाता है कि हमको कर्म की उपेक्षा करनी चाहिए। इसके विपरीत? दोनों का आग्रह कर्म के पालन पर ही है। हमको कर्म करने ही चाहिए। तथापि? ये कर्म अहंकार और स्वार्थ या फलासक्ति से रहित होने चाहिए। फलासक्ति ही हमारी कार्यकुशलता में बाधक बनती है। फलासक्ति के अभाव में हमारे कर्म हमें अपना पूर्ण पुरस्कार प्रदान कर सकते हैं। हम कह सकते हैं कि वेदों में प्रयुक्त इन दो शब्दों के अर्थों की अपेक्षा गीता में दी गई इनकी परिभाषाएं अधिक उदार एवं सहिष्णु हैं।अज्ञानी पुरुष को कर्म करने चाहिए या नहीं इस पर कहते हैं
Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta
।।18.2।।अत्रोत्तरम् --,काम्यानामिति। काम्यानि -- अग्निष्टोमादीनि ( अग्निष्टोमसत्रादीनि )। सर्वकर्मेति -- सर्वेषां नित्यनैमित्तककर्मणां ( S -- नैमित्तिककाम्यकर्मणाम् ) क्रियमाणत्वेऽपि फलत्यागः त्यागः। अत्र चाध्याये यदवशिष्टं ( S??N यदवशिष्टमवलग्नं वक्तव्यम् ) वक्तव्यमस्ति? तत् प्राक्तनैरेव तत्रभवद्भट्टभास्करादिभिः वितत्य विमृष्टमिति किमस्माकं तद्गूढार्थप्रकाशनमात्र ( S -- प्रत्यभिज्ञानिर्वाहण -- ) प्रतिज्ञानिर्वाहणसाराणां पुनरुक्तप्रदर्शनप्रयासेन।